Tuesday 28 February 2012

कबीर का रहस्यवाद


कबीर का रहस्यवाद
रहस्यवाद शब्द का प्रयोग चाहे जितना नया हो, रहस्यमयी सत्ता की प्रतीति और उसे मानवीय अनुभव की परिधि में लाकर उसके मधुरतम व्यक्तित्व की कल्पना तथा उससे आत्मिक सम्बंध स्थापना की प्रवृत्ति विश्व के सभी धर्मों में किसी किसी रूप में पाई जाती है। इसी धरातल को रहस्यवाद स्वरूप ग्रहण करता है।

     कबीर भक्त पहले थे, ज्ञानी बाद में। कबीर की मूल अनुभूति अव्दैत की है, लेकिन कबीर ने उसे रहस्यवाद के रूप में व्यक्त किया है। कबीर वेदांत के अव्दैत से रहस्यवाद की भूमि पर आए है। उनका रहस्यवाद उपनिषदों के ऋषियों के समान रहस्यवाद हैं, जो अव्दैत के अंतर्विरोधों में समन्वय करने वाली अनुभूति है। वे सगुण की अपेक्ष निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं। इस कारण उनका भगवत-प्रेम रहस्यवाद कहलाया। कबिर ने अव्दैत ज्ञान, प्रेममूलक भक्ति और रहस्यवाद के मिश्रण से निर्गुण भक्ति में मौलिक स्थापना की। रहस्यवादी प्रेम को अपनाने के कारण उनकी भक्ति में सुगण भक्ति जैसी सरसता गई।
   
    कबीर ने जीवात्मा-परमात्मा के प्रेम का सीधा-सीधा चित्रण किया है। उन्हेंने इसके लिए सूफी कवियों के समान कथारुपकों का प्रयोग नहीं किया है। परमात्मा से प्रेम को साकार अनुभवजनित रूप देने के लिए कबिर को प्रतीकों, रूपकों अन्योक्तियों का अवश्य आश्रय लेना पडा ये प्रतीक कबीर के आध्यात्मिक प्रेम को व्यक्त करते हैं। इनमें कहीं भी लौकिक पक्ष का समावेश नहीं हुआ है। गुरु की कृपा से उनके भीतर ईश्वर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। इससे उनके ह्रदय-चक्षु भुल जाते हैं तथा उन्हें उस परमात्मा सत्ता के दर्शन होते हैं। तब कबीर अत्यंत आनंदित हो जाते हैं। इस आनंद की वर्षा में उनका अंग-प्रत्यंग भीग जाता है।

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आय।
अंतर भीगी आत्माहरी भई बनराय।।
         
          प्रेम की इस प्रचंड अनुभूति से सारा विश्व चेतन स्वरूप आनंद रस में डूबा दिखाई पडता है। तन साधक संसार से विरक्ति हो जाती है। जगत विषय-भोगों का मकड़जाल अनुभव होता है। इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय ईश्वर का पावन स्मरण ही है।

    कबीर के ह्रदय में प्रभु-मिलन का असीम उत्कंठा जागृत होती है। इससे उनके भीतर की वेदना और गहरा जाती है। उनकी आत्मा तो परमात्मा को बुला ही पाती है और ही वहाँ परमात्मा तक पहुँच पाती है ---

आइ सकौ तुझ पै, सकूं बुझ बुलाइ।
जियश यौ ही लेहुंगे, विरह तपाइ तपाई।।

कबीर की विरह-व्यथा अत्यंत तीव्र व्यथा है। यह व्यथा चरम सीमा तक पहुंच जाती है और जीवात्मा अपने स्व को मिटाकर अपने प्रियतम के दर्शन करना चाहती है। परमात्मा को पाने के लिए कबीर बहुत भटकते हैं, वे उन्हें फिर भी पा नहीं पाते।

कबीर के काव्य में अनुभव की अत्यंत तीव्रता है। कबीर ने जीवात्मा और परमात्मा के इस प्रेम को पति-पत्नी के रूप में चित्रित किया है। कबीर ने कई बार पत्नी के रूपक में तो अधिकांश साखियाँ ऐसी कही हैं, जिनमें पुल्लिंग का प्रयोग जीवात्मा के लिए किया है। कहीं- कहीं कबीर ने इसे अन्य संबंधों के रूप में भी माना है। कबीर ने पिता-पुत्र के संबंध के माध्यम से भी इस प्रेम का चित्रण किया है ---

पूत पियारो जगत् को, गौहनि लागा धाइ।
लोभ मिठाई हाथ दै, आपण गया भुलाइ।।

जैसे-जैसे जीवात्मा और परमात्मा के मिलन की प्रगाढ़ता बढ़ती है। परिचय और मिलन की अनुभूति में परमात्मा जीवात्मा की व्दैतता मिटती जाती है। रहस्यवादी की दृष्टि में इन अवस्थाओं में ससीम जीवात्मा का असीम परमात्मा में विलय हो जाता है और ऐसी स्थिति में रहस्यवादी कबीर की पूर्ण निष्ठा अव्दैत में ही होती है।

    कबीर की साखियाँ परचौ कौ अंग में ऐसी साखियाँ हैं, जो एक ओर कबीर के भावनात्मक रहस्यवादी स्वरूप को स्पष्ट करती हैं, तो दूसरी ओर उनके आत्मज्ञानी स्वरूप को इस अनुभूति का आधार अव्दैत वेदांत है। कबीर ने जीवात्मा के परमतत्व के रूप में परिणत हो जाने की अनुभूति के साक्षात्कार को पानी और हिम के उदाहरण व्दारा समझाया है -----

पानी ही ते हिम भया, हिम हू गया बिलाय।
कबिरा जो था सोई भया, अब कछु कहा जाय।।
    
इस अवस्था में मै और तू का अंतर नहीं रहता है। धीरेधीरे यह मैं तू में समा जाता है। यह बूँद के समुद्र में समाने और समुद्र के बूँद में समाने की प्रक्रिया है। मन का भ्रम दूर हो जाने पर कबीर को परब्रह्म का साक्षात्कार होता है। कबीर इस परब्रह्म स्वरूप में समा जाते हैं। इस अवस्था में आने के पश्यात् रहस्यवादी के लिए संसार की समस्त विषमताएँ आनंददायक हो जाती हैं।

    इस प्रकार स्पष्ट है कि कबीर पाश्यात्य या सूफी परंपरा के रहस्यवादी मात्र नहीं थे, बल्कि उनमें भारतीय तत्व भी है। जैसे अव्दैत वेदांती का ज्ञान, वैष्णवों का अनन्य प्रेम, रहस्यवादियों की भावनात्मक एकता एवं योगियों का साधना से प्राप्त परमानंद। कबीर ने रहस्यवादी साधना के मार्ग पर चलकर निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति का वह रूखापन दूर किया, जिसके कारण व्यक्ति इससे अधिक निकटता अनुभव नहीं करते थे ऐसा करके कबीर ने निर्गुण की साधना उपासना में भी मिठास लाया है। 

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