" कहूँ याद करती
"
सारी रस्में निभाने की चाहत गज़ब थी ।
तुमको मगर मैं तो भूली ही कब थी ?
है बाहर समझ से करूँ याद क्यों मैं ?
उन यादों के मंज़र से निकली ही कब थी ?
बंद आँखों से देखूं तो मिलता
सुकूँ है ।
मिला जो मुझे उसकी चाहत ही कब थी ?
तेरी परछाइयों से भी उल्फत है मुझको ।
यूँ भी बेज़ार तुमसे हुई मैं ही कब थी ?
याद तेरी जो दिल में इनायत से कम क्या ?
याद करती कुसुम जिसे भूली ही कब
थी ?
- कुसुम ठाकुर -
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