Friday 13 April 2012


रामधारी सिंह 'दिनकर'
   रामधारी सिंह

रामधारी सिंह 'दिनकर'
उपनाम:
'दिनकर'
जन्म:
मृत्यु:
कार्यक्षेत्र:
कवि, लेखक
राष्ट्रीयता:
काल:
आधुनिक काल
गद्य और पद्य
विषय:
राष्ट्रवाद,
प्रगतिवाद
प्रमुख कृति(याँ):
हस्ताक्षर:
Hastakshardinkar.jpg
में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित



रामधारी सिंह दिनकर (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) भारत में हिन्दी के एक प्रमुख लेखक. कवि, निबंधकार थे।[1][2] राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता।
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृँगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्र और उर्वशी में मिलता है।
अनुक्रम
जीवन परिचय
इनका जन्म २३ सितंबर १९०८ को सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था। पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पदमविभूषण की से भी अलंकृत किया गया। पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय [3] के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कर प्रदान किये गए। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।
प्रमुख कृतियाँ
उर्वशी को छोड़कर, दिनकरजी की अधिकतर रचनाएं वीर रस से ओतप्रोत है. उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है. भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजी गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिंदी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रतिय थे. उन्होंने कहा कि दिनकरजी अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे. हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि दिनकरजी को एक नहीं, चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी भाषा की सेवा के लिए अलग-अगल ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए. रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा कि दिनकरजी ने देश में क्रांतिकारी आंदोलन को स्वर दिया. नामवर सिंह ने कहा कि दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे. प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया. प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ सिंह ने कहा कि दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे. उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की. एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया.. ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और संबंधों के इर्द-गिर्द धूमती है. उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अपसरा की कहानी है. वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शांति-पर्व का कवितारूप है. यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गई. वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिंतन के अनुरुप हुई है. संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है, क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है. दिनकरजी की रचनाओं के कुछ अंश-
रे रोक युधिष्ठर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर (हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो (कुरूक्षेत्र)
पत्थर सी हों मांसपेशियां लौहदंड भुजबल अभय नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय (रश्मिरथी
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते है.
सच पूछो तो सर में ही बसती दीप्ति विनय की संधि वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की सहनशीलता क्षमा दया को तभी पूजता जग है बल के दर्प चमकता जिसके पीछे जब जगमग है
पद
1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
सम्मान
दिनकरजी को उनकी रचना कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला. संस्कृति के चार अध्याय के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानध उपाधि से सम्मानित किया. गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिए चुना. 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया. वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिए उन्हें ज्ञानपीठ सम्मानित किया गया. 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गए और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे.
मरणोपरांत सम्मान
30 सितंबर 1987 को उनकी 79वीं पुण्यतिथि पर तात्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें श्रद्धांजलित दी. 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किए. दिनकर जी की स्मृति में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर, रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया. इस किताब की रचना खगेश्वर ठाकुर ने की और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने इसका प्रकाशन किया. उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य प्रतिमा का अनावरण किया और उन्हें फूल मालाएं चढाई. कालीकट विश्वविद्यालय में भी इस अवसर को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया.
दो न्याय अगर तो आधा दो, और, उसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
लेकिन दुर्योधन
दुर्योधन वह भी दे न सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
यह देख जगत का आदि-अन्त, यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।

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